सभी पाठकों को मेरा प्रेम भरा नमस्कार….. दोस्तों जैसा की आप सभी को विदित ही है की जागरण जंक्शन पर एक प्रेम प्रतियोगिता प्रारंभ हो चुकी है और सभी ब्लॉगर बंधू प्रेम विषय पर अपने अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं…. इसी क्रम में मै भी अपनी यह पोस्ट आप सब के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ…. प्रेम निश्चय ही जीवन का सर्वप्रमुख विषय है….. इसके विषय में जितना लिखा या कहा जाये कम ही प्रतीत होगा…. फिर भी आप सबके मध्य इस विषय पर मै दिनांक १ से १४ फरवरी के मध्य अपने कुछ विचार कलम बद्ध करने का प्रयास करूँगा….. आप सबसे आग्रह करूँगा की मेरे इन विचारों के सम्बन्ध में आप सबकी जो भी राय हो उससे मुझे अवश्य अवगत कराएँ.
प्यार के अनेक किस्से और कहानियां हम सबने सुनी और पढ़ी हैं जैसे शीरीं-फरहाद, सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, रोमियो- जुलियेट आदि इनका कभी मिलन नहीं हुआ….. अगर गौर से देखें तो इतिहास में दुखद प्रेम के अफसाने ही नज़र आते हैं….. सुखद प्रेम के अफ्सानो की संख्या लगभग नगण्य ही होगी….. कम से कम मुझे तो अभी ऐसी कोई ऐतिहासिक कथा याद नहीं आ पा रही है…. अब प्रश्न उठता है की ऐसा क्यों है…. क्यों गृहस्थी प्रारंभ करते ही प्रेम हवा हो जाता है…. क्योंकि वह प्रेम कोरी कल्पनाओं पर आधारित होता है.
प्रेम मनुष्य की सबसे बड़ी जरुरत है…. इस जरुरत को पूर्ण करने का उपाय अक्सर मनुष्य के पास नहीं होता है….. इसका सबसे बड़ा कारण है मनुष्य का प्रेम की प्रकृति को न साझ पाना…. मनुष्य प्रेम के उपर अपनी अपेक्षाओं को खड़ा करता है…. और कर देता है प्रेम की हत्या. प्रेम की निश्छल तरंगो का दम घोंट देती है हमारी अपेक्षाएं…. क्योंकि अपेक्षा रहित प्रेम करने में अक्सर मनुष्य विफल हो जाता है.
ओशो ने कहा है कि ”प्रेम शाश्वत है लेकिन उसे स्थायी बनाने की कोशिश में तुम उसे मार डालते हो”….. शाश्वत का अर्थ है जो निरंतर हो….. जो निरंतर होगा वह स्थायी नहीं हो सकता क्योंकि स्थायी में निरन्तरता नहीं होती…. शाश्वत अर्थात नित नूतन नित नवीन…. प्रेम अस्थायी है……. प्रेम शाश्वत है…. वह रोज नए कलेवर में है….. उसे स्थायित्व में बंधने कि कोशिस मत करो…. नहीं तो वह मर जायेगा…. सड़ जायेगा.
प्रेम एक क्षण में इतना गहन होता है कि आप उसमे डूब जाते हैं और अगले ही क्षण आपको लगता है कि यह कैसी अनुभूति थी….हमारी प्रेम कि यही गहनता कि कामना…..इसी गहनता के स्थायित्व कि इच्छा ….. प्रेम कि हत्या कर देती है…. और फिर हम यही गीत गाते मिलते हैं…
रास्ता वही, मुसाफिर वही, इक तारा न जाने कहां खो गया…..
प्रेम में मर जाने….एक दुसरे के लिए मिट जाने का जूनून पैदा होता है…. ये भाव झूटे नहीं होते लेकिन इन भावों का जीवन छोटा जरुर होता है…. कारण स्पष्ट है ये भाव भी तभी तक हैं जब तक प्रेम…. जब प्रेम ही नित नया…नित नवीन है तो ये मर मिटने के भाव तो क्षण भंगुर होंगे ही…. प्रेम की शाश्वतता के कारण ही ये भाव क्षण भंगुर हैं. प्रेम की राह में सबसे बड़ी बाधा है अहंकार….. घर परिवार, समाज ये कोई भी प्रेम की राह के बाधक नहीं है जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है…. प्रेम की धारा अक्सर अहंकार के रेगिस्तान में लुप्त हो जाती है. अगर मनुष्य प्रेम में मरने की कला जान जाये तो प्रेम से उसका जीवन सदैव महकता रहेगा.
प्रेम में हार जीत मायने नहीं रखती है…. जो प्रेम में हारा है असल में उसी की जीत हुई…..यह तो मानव मन का स्वभाव है…. जिससे जितना प्रेम करता है उससे उतनी ही नफरत भी करता है…. मन के इस स्वाभाव को समझना बहुत जरुरी है…. अगर यह समझ में आ जाये तो दैनिक जीवन में हमें जो भी प्रेम में अडचने आती हैं वो समाप्त हो जाएँगी…. सबसे जरुरी बात यह है की पहले तो हम स्वयं को प्यार करें…. जब हम स्वयं को प्यार कर पाएंगे तभी हम दूसरे को प्यार कर पाएंगे…. लेकिन ध्यान रहे प्यार शर्तों से रहित होता है…. प्यार में कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए ….. यदि प्यार अपेक्षाओं की सीढियों पर खड़ा होगा तो शाश्वत नहीं राह पायेगा. प्रेम को जीवन का अंग होना चाहिए. जिस प्रकार श्वाश लेने में हम नहीं सोचते हैं उसी प्रकार प्रेम की वर्षा करने में भी हमें विचार नहीं करना चाहिए…. यह भी उसी प्रकार निर्बाध होना चाहिए.
मत रोकिये प्रेम के प्राकृतिक प्रवाह को… निर्बाध रूप से बह जाने दे प्रेम की गंगा को… निश्चय ही महक उठेगा आपका जीवन.
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