….आत्मा सबकी प्यासी है….एक अजीब सी बैचेनी….एक अधूरापन…. ….सबको सालता रहता है…. ….एक दर्द भरी कराह सबके अन्दर करवटें लेती रहती है…. ….लेकिन कुछ बिरले होते हैं जो अपनी आत्मा की इस प्यास को पहचान पाते हैं…. ….अपने में गहरा झांककर आत्मा के इस रुदन को समझ पाते हैं…. ….आत्मा का भोजन और रस परमात्मा है…. ….रसो वै स: …. ….परमात्मा से मिलकर ही आत्मा की भूख और प्यास मिटती है…. ….इसीलिए बिरले जिज्ञासु परमात्मा की खोज में निकल पड़ते हैं…. ….इस खोज में कहीं पाखंड मिलता है तो कहीं रुढियों का मकडजाल…. ….जिज्ञासुओं को उल्लू बनाने के लिए ईश्वर के नाम पर….
….क्या क्या पैंतरें नहीं फेंके जाते…. ….लेकिन ध्यान रखना फंसते वो ही लोग हैं….
….जिन्होंने आत्मा की कराह को ठीक से नहीं सुना होता…. ….ईश्वर के जिज्ञासु तब तक खोजते हैं जब तक उस परम का दर्शन नहीं कर लेते…. ………………………………………………………………………………………………………….. ….आपको मै आज एक ऐसी ही कहानी सुनाता हूँ…. ….एक बार संत राबिया अपनी कुटिया मै साधना कर रही थी…. ….फकीर हसन ने कुटिया का द्वार खटखटाया और बड़े उत्साह से बोले….. ….अरे राबिया भीतर क्या कर रही है….बाहर तो आकर देखो…. ….यहाँ मौसम कितना सुहावना है….ठंडी फुहारों ने बगिया को नहलाकर हरियाला कर दिया है…. ….ऊपर आकाश मै इन्द्रधनुषी रंग बिखरे पड़े हैं….राबिया बाहर आकर देखो तो सही….. ….तब राबिया ने भीतर से ही एक बात कही…. ….हसन मुझे बाहर नहीं….तुम्हे भीतर जाने की जरुरत है…. ….आखिर फीके रंगों को देख कर कब तक मन बहलाते रहोगे…. …………………………………………………………………………………………………………… ….राबिया का यह कटाक्ष दरअसल हम सबके लिए है…. ….यदि हम भी अपने अंतर्जगत में झांककर देखे तो उस परलौकिक के दर्शन कर अभिभूत हो सकते हैं….
….कबीर दास जी ने कहा है….
….महरम होय सो जाने साधो, ऐसा देश हमारा….
….बिन जल बूँद परत जहँ भारी, नहिं मीठा नहिं खारा….
….सुन्न महल में नौबत बाजे, किंगरी बीन सितारा….
….बिन बदर जहँ बिजुरी चमके, बिन सूरज उजियारा….
….जोति लजाय ब्रह्म जहँ दरसे, आगे अगम अपारा….
….कहें कबीर वहं रहनि हमारी, बूझे गुरुमुख प्यारा….
टिप्पणी: आप सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि उपरोक्त लेख मेरे द्वारा पूर्व मे प्रकाशित किया गया था। उपरोक्त लेख के संबंध मे आपकी जो भी राय हो निःसंकोच प्रस्तुत कीजिएगा। धन्यवाद।
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