एक बार एक राजा कैदियों से मिलने कारागार में पहुंचा. सब कैदी दौड़ कर राजा के चरणों में जा गिरे और प्रार्थना करने लगे…… हे राजन, हम निर्दोष हैं…. हमने चोरी नहीं की…… हमने डकैती नहीं डाली…… न ही हमने किसी का क़त्ल किया है…. आपके सैनिक हमें भूलवश चोर डाकू समझ बैठे हैं. हम पर कृपा कर हमें आज़ाद कर दें. राजा उन सबकी गुहार को अनसुना कर कारागार के एक कोने की ओर जाने लगा. वहां एक कैदी चुपचाप सर झुकाए बैठा था. राजा को समक्ष पाकर वह बोला….. राजन आपकी अदालत ने मुझे जो सजा दी है …. मेरे गुनाहों के आगे वह बहुत कम है…… पता नहीं परमात्मा की अदालत मुझे क्या सजा देगी…… इतना कह कर वह फूट फूट कर रोने लगा. राजा ने अपने सैनिकों को आदेश दिया ….. कि इस व्यक्ति को तुरंत रिहा कर दिया जाये.
कथा का भाव…… जो व्यक्ति पश्चाताप कि अग्नि में जल कर स्वयं को दण्डित कर लेता है, उसे बाहरी दंड देने कि आवश्यकता नहीं रहती. पर जिन्हें अपने गुनाहों पर पछतावा नहीं है, वे कभी नहीं सुधर सकते, अतः वे क्षमा के भी अधिकारी नहीं हैं.
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